लो वेस्ट जीन्स पर बैन

पिछले दिनों इस बात से पूरे समाज में सनसनी फैल गई कि अब लड़के-लड़कियाँ लो वेस्ट जीन्स नहीं पहन सकेंगे। मुद्दआ ये है कि इस प्रकार के परिधानों को उत्तोजक बताते हुए इन पर बैन लगा दिया गया है। अब ये विषय विश्वविद्यालयों की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं के वाद-विवाद व्यवसाय तक छाया रहेगा।
दरअसल हमारा जागरूक समाज इस निर्णय को इसलिए स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि यह हमारे मौलिक अधिकार 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का हनन है। इस संदर्भ में परम आदरणीया मल्लिका जी की एक सूक्ति उध्दृत की जा सकती है। जब उनके परिधानों को लेकर कुछ संकुचित मानसिकता वाले लोगों ने हंगामा खड़ा किया था तो मल्लिका जी ने यह उद्बोधन देकर मुआमला शांत किया था कि मेरे पास ख़ूबसूरत बदन है तो मैं क्यों न दिखाऊँ। तर्क में दम था। सो हंगामाजीवियों को साँप सूंघ गया और संपादकीय पृष्ठों से उठा विवाद पेज थ्री के इस बयान से समाप्त हो गया।
कदाचित् बुध्दिजीवियों ने यह सोचकर विवाद को आगे नहीं बढ़ाया कि यदि कल को मल्लिका जी ने उन्हें कम कपड़े पहनने की चुनौती दे डाली तो क्या होगा! सो अपनी इज्ज़त अपने हाथ....। ख़ैर कपड़ों की तरह विषय भी भटक गया था। सो वापस लो वेस्ट जीन्स पर आते हैं।
यह मुआमला केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का नहीं है अपितु हमारे सभ्य समाज की 'अनुभूति की स्वतंत्रता' का भी है। जब कुछ 'सुराग़' ही नहीं दिखाई देगा तो कल्पनाशील समाज पूरी तस्वीर की कल्पना कैसे करेगा। और जब तस्वीर की कल्पना ही नहीं होगी तो वह सुखद अनुभूति कैसे होगी जो..........!
इतना ही नहीं, ये निर्णय पुन: हमारे समाज की महिलाओं को उसी पुरुषवादी कठघरे में ला खड़ा करने का एक षडयंत्र है जिससे बाहर आने के लिए सैंकड़ों लोग महिला-मुक्ति का झंडा उठाए कमा रहे हैं। पहले पुरुषों ने धर्म के नाम पर महिलाओं को घर की चाहरदीवारी में क़ैद कर रखा था और अब पूरे कपड़ों में क़ैद करने के लिए समाज और सभ्यता की दुहाई दी जा रही है।
ये अन्याय नहीं चलेगा। और चूंकि क्रांति दबाने से और भड़कती है इसलिए यदि पुरुष यूँ ही मनमानी करते रहे और महिलाओं को पूरे कपड़े पहनाने को विवश किया गया तो महिलाएँ इसका और भी अधिक विरोध करेंगी और कोई कॉरपोरेट कंपनी अपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी निभाते हुए लो थाइज़ जीन्स लांच कर देगी। फिर देखते रह जाएंगे सारे पुरुष!
सरकार को चाहिए कि ऐसे मामलों को गंभीरता से लेते हुए इस निर्णय पर बैन लगाए। ज़रा सोचिए! एक ग़रीब आदमी जो अभी दो सप्ताह पहले लिवाइज़ की जीन्स ख़रीद कर लाया है, इस निर्णय के लागू होने से उसके दिल पर क्या बीतेगी। कहाँ से लाएगा नई जीन्स ख़रीदने के लिए वह पैसा। जिस दौर में लोगों के पास दाल-रोटी के लाले हैं, ऐसे में सरकार ने यदि इस प्रकार के निर्णयों पर रोक नहीं लगाई तो ग़रीबी कितनी बढ़ जाएगी।
वैसे भी जब गांधी जी अपने देशवासियों की चिंता में अपने पायजामे को धोती में बदल सकते हैं, तो गांधी जी के अनुयायी अपनी जीन्स को थोड़ा छोटा नहीं कर सकते। ये और बात है कि गांधी जी ने पाऊँचे काटे थे और हमने बैल्ट! पर मूल मुद्दआ तो कटौती का है। और कटौती हम कर रहे हैं। अब इस निर्णय पर पुनर्विचार होना चाहिए और इसको जीन्स से हटाकर टॉप पर लागू करना चाहिए कि जो लो वेस्ट टॉप पहनेगा उस पर ज़ुर्माना किया जाएगा। इससे हमारे टॉप भी ऊपर उठेंगे और 'संस्कृति' भी!

काव्य के गहन सिध्दांत

साहित्य संस्कृति का दर्पण है। इसी सूक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी कविता हमेशा से ही हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का अनुपालन करती रही है। यह और बात है कि इन सिध्दांतों की आड़ में काव्य के मूल सिध्दांत और स्वयं कविता भी 'गहरे अर्थों में' बैकुण्ठवासी हो चली है। (यहाँ पर 'गहरे अर्थों में' लिखने का लाभ यह है कि अब कोई मुझसे इसका अर्थ पूछेगा नहीं, क्योंकि वास्तव में उन अर्थों से मैं स्वयं भी परिचित नहीं हूँ, लेकिन लोग यह सोचकर मुझसे इन अर्थों का संज्ञान नहीं लेंगे कि अगर उन्होंने पूछा तो यह स्वत: ही सिध्द हो जाएगा कि उनकी सोच गहरी नहीं है।) यहाँ पर सामाजिक भय का सिध्दांत कार्य करता है।
हमारी संस्कृति हमेशा से ही अतिथियों को भगवान मानती रही है। यह दीगर बात है कि इसी सिध्दांत का लाभ उठाकर रावण सीता को उठाकर ले गया था और हरिश्चंद्र को राजा के पद से च्युत होकर श्मशान का पंडित बनना पड़ा और न जाने क्या-क्या अपमान भोगना पड़ा। ख़ैर 'अतिथिदेवोभव:' के सिध्दांत की परमकृपा के चलते बाबा तुलसी अपना गृहनगर छोड़ते ही परमात्मा स्वरूप पूजे जाने लगे। यदि उस ज़माने में हवाई जहाजों का चलन होता तो रामचरितमानस् की पहली प्रति यूएसए अथवा यूरोप के किसी 'बड़े' प्रकाशक बंधु ने आर्टपेपर पर फोरकलर में छापी होती। ...लेकिन लाल रंग तिसको लगा, जिसके बड़ भागा (इसी कारण हतभागियों की किताब काले रंग से छपती है)।
इस सिध्दांत में भारतीय जुगाड़ संहिता की धारा 420 के अनुच्छेद 1 में एक छूट मिलती है- 'यह कि यदि कोई धनिक जो कि भारत का नागरिक है, किसी विशेष अथवा सामान्य कारण से भारतीय भौगोलिक क्षेत्र से बाहर अपना निवास निर्माण नहीं कर पाया है तो भी उसकी खाता विवरणिका (बैंक स्टेटमेंट) में उपलब्ध शेष राशि के न्यूनतम अष्ट अंकीय होने को आधार मानकर उसके काव्य को श्रेष्ठ काव्य की श्रेणी में गणित किया जा सकता है।' जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाई! बहिरो सुरै मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई! (यहाँ पर जाकी से सूरदास जी का तात्पर्य बैंक बैलेंस से है)।
इसी धारा के अनुच्छेद 2 के अनुसार- 'यदि कोई भारतीय नागरिक राजकीय सेवा में किसी ऐसे पद पर विराजमान है जहाँ से वह साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों अथवा अकादमियों के सचिवों को विदेश यात्रा अथवा पुरस्कारों का वरदान देने में सक्षम हो तथा इस योग्यता के साथ-साथ स्वयं को कवि भी मानता हो तो उसके काव्यकर्म का सम्मान करना संपादकों तथा अकादमियों का परमर् कत्ताव्य बन जाता है।' जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करें सब कोई (इस चौपाई के रचनाकाल में घट-घट वासी राम सरकारी कुर्सी में जा बसे थे)।
बाद में कुछ विशेष प्रयोजनों के चलते इस धारा में एक अनुच्छेद और जोड़ा गया जिसके अनुसार- 'यह कि यदि कोई धनाढय मनुज जो कि एक पंक्ति भी शुध्द नहीं लिख सकता, ऐसे नागरिक को यदि कवि बनने की उत्कंठा जागे तो उसकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रकाशकों का दायित्व बन जाता है कि भारतीय संविधान के समानता के अधिकार का प्रयोग करते हुए उन्हें पाण्डुलिपि तैयार करके देवें। इसके लिए समय-समय पर कुछ 'वास्तविक' निर्धन कवियों की पाण्डुलिपि को यह कह कर निरस्त किया जाना होगा कि उनकी कविताएँ तो कूड़ा हैं। ऐसा कहकर निर्धन कवियों की रचनाओं को गुदड़ी में फेंक देना अपरिहार्य है ताकि समय पड़ने पर 'गुदड़ी के लाल' ढूंढे जा सकें और एक उत्ताम पुरस्कारणीय पाण्डुलिपि तैयार की जा सके। विदेशी होगा पहला कवि, प्लेन से आया होगा गान, निकलकर रिजेक्टिड से चुपचाप, छपी होगी कविता अनजान।
इस प्रकार सभी भारतीय कवियों, साहित्यकारों, अप्रवासियों, धनिकों, प्रकाशकों, अधिकारियों तथा अन्य प्रत्येक नागरिक का धन्यवाद करते हुए अपनी आदत के अनुसार एक श्लोक को उध्दृत करना चाहूंगा। यह श्लोक वास्तव में प्रूफ की अशुध्दियों के चलते लम्बे समय से ग़लत छपता रहा है। आज मैं यहाँ पर उसका असली रूप प्रकाशित कर रहा हूँ-
मा लेखक प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् धनाढयजुगाड़ादेकमवधी काव्यमोहितम्॥

अर्थात् हे लेखक! तुझे प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार, मान-मर्यादा, गौरव, प्रसिध्दि, ख्याति, यश, कीर्ति, स्थिति, स्थान, स्थापना, ठौर, ठिकाना, ठहराव, आश्रय इत्यादि नित्य-निरंतर कभी भी न मिले, क्योंकि तूने इस जुगाड़तंत्र में निमग्न धनिकों/राजनायिकों/अप्रवासियों (जिनसे प्रकाशकों/अकादमिकों को कुछ लाभ हो सकता था) की, बिना किसी पत्रिका में प्रकाशित हुए ही आलोचना की है।