काव्य के गहन सिध्दांत

साहित्य संस्कृति का दर्पण है। इसी सूक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी कविता हमेशा से ही हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का अनुपालन करती रही है। यह और बात है कि इन सिध्दांतों की आड़ में काव्य के मूल सिध्दांत और स्वयं कविता भी 'गहरे अर्थों में' बैकुण्ठवासी हो चली है। (यहाँ पर 'गहरे अर्थों में' लिखने का लाभ यह है कि अब कोई मुझसे इसका अर्थ पूछेगा नहीं, क्योंकि वास्तव में उन अर्थों से मैं स्वयं भी परिचित नहीं हूँ, लेकिन लोग यह सोचकर मुझसे इन अर्थों का संज्ञान नहीं लेंगे कि अगर उन्होंने पूछा तो यह स्वत: ही सिध्द हो जाएगा कि उनकी सोच गहरी नहीं है।) यहाँ पर सामाजिक भय का सिध्दांत कार्य करता है।
हमारी संस्कृति हमेशा से ही अतिथियों को भगवान मानती रही है। यह दीगर बात है कि इसी सिध्दांत का लाभ उठाकर रावण सीता को उठाकर ले गया था और हरिश्चंद्र को राजा के पद से च्युत होकर श्मशान का पंडित बनना पड़ा और न जाने क्या-क्या अपमान भोगना पड़ा। ख़ैर 'अतिथिदेवोभव:' के सिध्दांत की परमकृपा के चलते बाबा तुलसी अपना गृहनगर छोड़ते ही परमात्मा स्वरूप पूजे जाने लगे। यदि उस ज़माने में हवाई जहाजों का चलन होता तो रामचरितमानस् की पहली प्रति यूएसए अथवा यूरोप के किसी 'बड़े' प्रकाशक बंधु ने आर्टपेपर पर फोरकलर में छापी होती। ...लेकिन लाल रंग तिसको लगा, जिसके बड़ भागा (इसी कारण हतभागियों की किताब काले रंग से छपती है)।
इस सिध्दांत में भारतीय जुगाड़ संहिता की धारा 420 के अनुच्छेद 1 में एक छूट मिलती है- 'यह कि यदि कोई धनिक जो कि भारत का नागरिक है, किसी विशेष अथवा सामान्य कारण से भारतीय भौगोलिक क्षेत्र से बाहर अपना निवास निर्माण नहीं कर पाया है तो भी उसकी खाता विवरणिका (बैंक स्टेटमेंट) में उपलब्ध शेष राशि के न्यूनतम अष्ट अंकीय होने को आधार मानकर उसके काव्य को श्रेष्ठ काव्य की श्रेणी में गणित किया जा सकता है।' जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाई! बहिरो सुरै मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई! (यहाँ पर जाकी से सूरदास जी का तात्पर्य बैंक बैलेंस से है)।
इसी धारा के अनुच्छेद 2 के अनुसार- 'यदि कोई भारतीय नागरिक राजकीय सेवा में किसी ऐसे पद पर विराजमान है जहाँ से वह साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों अथवा अकादमियों के सचिवों को विदेश यात्रा अथवा पुरस्कारों का वरदान देने में सक्षम हो तथा इस योग्यता के साथ-साथ स्वयं को कवि भी मानता हो तो उसके काव्यकर्म का सम्मान करना संपादकों तथा अकादमियों का परमर् कत्ताव्य बन जाता है।' जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करें सब कोई (इस चौपाई के रचनाकाल में घट-घट वासी राम सरकारी कुर्सी में जा बसे थे)।
बाद में कुछ विशेष प्रयोजनों के चलते इस धारा में एक अनुच्छेद और जोड़ा गया जिसके अनुसार- 'यह कि यदि कोई धनाढय मनुज जो कि एक पंक्ति भी शुध्द नहीं लिख सकता, ऐसे नागरिक को यदि कवि बनने की उत्कंठा जागे तो उसकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रकाशकों का दायित्व बन जाता है कि भारतीय संविधान के समानता के अधिकार का प्रयोग करते हुए उन्हें पाण्डुलिपि तैयार करके देवें। इसके लिए समय-समय पर कुछ 'वास्तविक' निर्धन कवियों की पाण्डुलिपि को यह कह कर निरस्त किया जाना होगा कि उनकी कविताएँ तो कूड़ा हैं। ऐसा कहकर निर्धन कवियों की रचनाओं को गुदड़ी में फेंक देना अपरिहार्य है ताकि समय पड़ने पर 'गुदड़ी के लाल' ढूंढे जा सकें और एक उत्ताम पुरस्कारणीय पाण्डुलिपि तैयार की जा सके। विदेशी होगा पहला कवि, प्लेन से आया होगा गान, निकलकर रिजेक्टिड से चुपचाप, छपी होगी कविता अनजान।
इस प्रकार सभी भारतीय कवियों, साहित्यकारों, अप्रवासियों, धनिकों, प्रकाशकों, अधिकारियों तथा अन्य प्रत्येक नागरिक का धन्यवाद करते हुए अपनी आदत के अनुसार एक श्लोक को उध्दृत करना चाहूंगा। यह श्लोक वास्तव में प्रूफ की अशुध्दियों के चलते लम्बे समय से ग़लत छपता रहा है। आज मैं यहाँ पर उसका असली रूप प्रकाशित कर रहा हूँ-
मा लेखक प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत् धनाढयजुगाड़ादेकमवधी काव्यमोहितम्॥

अर्थात् हे लेखक! तुझे प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार, मान-मर्यादा, गौरव, प्रसिध्दि, ख्याति, यश, कीर्ति, स्थिति, स्थान, स्थापना, ठौर, ठिकाना, ठहराव, आश्रय इत्यादि नित्य-निरंतर कभी भी न मिले, क्योंकि तूने इस जुगाड़तंत्र में निमग्न धनिकों/राजनायिकों/अप्रवासियों (जिनसे प्रकाशकों/अकादमिकों को कुछ लाभ हो सकता था) की, बिना किसी पत्रिका में प्रकाशित हुए ही आलोचना की है।

14 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

आप के ब्लॉग में 'गम्भीरता' के लक्षण हैं। ऐसा जातक श्रेष्ठ व्यंग्य का जनक होता है, ऐसा पंडितों ने बताया है।

शर्त यह है कि एक समय में एक ही विषय उठाए और उसका विकास करे।

रचना की प्रौढ़ता से आप नए लेखक तो कत्तई नहीं लगते। ब्लॉग जगत में आप का स्वागत करता हूँ और सफल ब्लॉगर होने के लिए शुभकामनाएँ।

word verification हटा दें तो मैं ही नहीं हर ब्लॉगर अनुगृहीत होगा।

मेरे ब्लॉग पर आएँ। विश्वास है कि आप यहाँ अच्छे व्यंग्य पाएँगें। टिप्पणी करना न भूलें।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ब्लाग्जगत में आपका स्वागत है। चर्चा तो होती रहेगी-स्वागतम्‌

अजय कुमार झा said...

vyanga kaa itihaas aur us par itnaa gambheer lekh shaayad maine pehlee baar hee padha hai../.swagat hai aapkaa...

anil said...

हिंदी ब्लॉगिंग जगत में आपका स्वागत है. हमारी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं । अगर वर्ड वेरीफिकेशन को हटा लें तो टिप्पणी देने में सुविधा होगी ओर आपके ब्लोग पर टिपणीयां भी ज्यादा आएंगी क्योंकि अधिकतर टिप्पणीकार word verification देखते ही भाग जाते हैं । word verification हतटाने का आसान तरीका यहां है ।

Akhileshwar Pandey said...

हिंदी ब्‍लाग जगत में चुभाने वाले पहले ही अधिक हैं फ‍िर भी संख्‍या में इजाफा होते रहना तो प्रकृति का नियम है...आपको भी झेल लेंगे जी। यहां हमारे जैसे ढेरों झेलाउ लाइन में लगे हैं...हा..हा..हा..

इस्लामिक वेबदुनिया said...

आपको हमारी शुभकामनायें

maandarpan said...

आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

गार्गी

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

kya aap aisa muslim,sikh dharm ke bare me bhee likh sakte hain.agar yes to likh kar dikho. narayan narayan

समय said...

बेहतर प्रयास...
नारदमुनि अपना कार्य कर रहे हैं...

किसी भी व्यक्ति को पहला स्वाभाविक हक़ अपने और अपने परिवेश के बारे में बात करने का होता है...

उन पर उनके लोग कहेंगे..और कह भी रह रहे हैं..

हम तो अपने घर की गंदगी पहले टटोललें....

राजेंद्र माहेश्वरी said...

ब्लाग्जगत में आपका स्वागत है।

रवि कुमार, रावतभाटा said...

अच्छा व्यंग्य...

शुभकामनाएं......

चिराग जैन CHIRAG JAIN said...

नारद मुनि को प्रणाम करता हूँ (लंबकरबद्ध)
इसके अतिरिक्त जिन मित्रों को टिप्पणी के दौरान WORD VERIFICATION की पेचीदगी का सामना करना पड़ा उनसे क्षमाप्रार्थी हूँ
प्रतिपुष्टि संचार को अधिक प्रभावकारी बनाती है।

alka mishra said...

कहीं ऐसा न हो की सारे बने हुए लेखक आपको डंडा लेकर खोजने लगें तब आप मेरे पास आइयेगा ,मैं आपको अदृश्य होने की जडी-बूटी खिला दूंगी
निकल कर रिजेक्तिड से चुपचाप ........वाह वाह वाह

चिराग जैन CHIRAG JAIN said...

धन्यवाद अल्का जी
वैसे आप जैसे शुभचिंतक ही किसी लेखक की बेबाक़ी का पाथेय होते हैं
मन से आभारी हूँ